अनिश्चितकालीन रेल हड़ताल स्थगित?
तारीख दर तारीख आगे बढ़ती हड़ताल : श्रमिक संगठनों से हुआ कर्मचारियों का मोह भंग
सरकारी कर्मचारियों को डराने और श्रमिक नेताओं पर लगाम कसने में कामयाब रही सरकार
सुरेश त्रिपाठी
हालांकि इससे पहले 30 जून को केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह के आवास पर वित्तमंत्री अरुण जेटली, रेलमंत्री सुरेश प्रभु और रेल राज्यमंत्री मनोज सिन्हा के साथ हुई केंद्रीय श्रमिक संगठनों के नेताओं की बैठक में ही यह तय हो गया था कि रेल हड़ताल नहीं होगी. ‘रेलवे समाचार’ ने ‘रेल हड़ताल की संभावना क्षीण’ शीर्षक से इस बारे में लिखा भी था. इसके अलावा लाखों रेलकर्मियों सहित तमाम केंद्रीय कर्मचारियों को भी यह पता था कि अंत-अंत तक हड़ताल या तो वापस ले ली जाएगी, या फिर किसी तथाकथित सम्मानजनक समझौते के तहत हड़ताल को स्थगित कर दिया जाएगा. हुआ भी यही है. हालांकि 29 जून को केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में मंजूरी और उसी दिन सरकार द्वारा सातवें वेतन आयोग को लागू किए जाने की घोषणा के बाद तमाम केंद्रीय कर्मचारियों की अपेक्षाएं भंग हुईं और वे हड़ताल के पक्ष में पूरी तरह से एकजुट हो गए थे.
इससे अगले वर्ष उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ ही भाजपा के लिए फिलहाल किसी राज्य की विधानसभा से भी ज्यादा महत्वपूर्ण महाराष्ट्र में मुंबई महानगर पालिका के चुनाव के मद्देनजर न सिर्फ सरकार के हाथ-पांव फूल गए, बल्कि केंद्रीय श्रमिक संगठनों के नेताओं को भी हड़ताल के पक्ष में उनकी अपेक्षा से अधिक समर्थन मिल गया. हड़ताल के समर्थन में रेलवे सहित तमाम केंद्रीय कर्मचारियों के भारी उत्साह को देखते हुए जहां सरकार को अपनी राजनीतिक जमीन हिलती हुई नजर आ रही थी, वहीं केंद्रीय श्रमिक संगठनों की हालत भी उनके गले में फंसे गुड़ भरे हंसिए जैसी हो गई, जिसे उन्हें न उगलते बन रहा था, न ही निगलते, क्योंकि जिस तरह कर्मचारियों का असंतोष फूट पड़ा और वह मैदान में उतर आए, उसे देखते हुए केंद्रीय श्रमिक संगठनों के नेताओं को अब हड़ताल से भागने का कोई अवसर नहीं था.
इस बीच सरकार के तेवर भी बहुत कड़े नजर आए. उसके निर्देश पर रेलवे सहित सभी सरकारी महकमों ने न सिर्फ हड़ताल को अवैध घोषित कर दिया, बल्कि हड़ताल विरोधी विभिन्न कानूनों का हवाला देकर इसके तहत कर्मचारियों को दो साल की सजा और जुर्माना आदि बता दिए जाने से तमाम कर्मचारी कुछ हद तक बिखरे, मगर टूटे नहीं थे. इसके अलावा सरकार द्वारा सभी कर्मचारियों की छुट्टियां रद्द कर दी गईं, जो कर्मचारी छुट्टी पर थे, उनकी छुट्टियां रद्द करके उन्हें ड्यूटी पर रिपोर्ट करने का आदेश दिया गया. सभी सरकारी एवं रेलवे अस्पतालों के डॉक्टरों को कड़े निर्देश जारी किए गए कि वे किसी भी सरकारी कर्मचारी को मेडिकल छुट्टी पर न रखें. किसी भी कर्मचारी को आकस्मिक अवकाश भी नहीं दिए जाने के आदेश सभी संबंधित विभागीय अधिकारियों को दे दिए गए. पुलिस फोर्स सहित सभी फोर्सेज को सतर्क और किसी भी विपरीत स्थिति का सामना करने के लिए तैयार रहने को कह दिया गया था. सरकार की इस सब तैयारी के मद्देनजर केंद्रीय श्रमिक संगठनों के सभी नेताओं को भी इस बात का बखूबी अंदाजा हो गया था कि उनका जो होगा, सो तो होगा ही, परंतु हड़ताल होने पर बहुत बड़े पैमाने पर सरकारी कर्मचारियों का उत्पीड़न होगा, हजारों कर्मचारियों को अपनी नौकरियां भी गंवानी पड़ सकती हैं. इसलिए यह हड़ताल न हो, इसके लिए सरकार के साथ वह भी प्रयासरत हो गए. हालांकि कर्मचारी तो अब यह भी कह रहे हैं कि उनके बजाय श्रमिक नेताओं को ही अपने अस्तित्व का सबसे बड़ा खतरा था.
अब जब वेतन आयोग की घोषणा के बाद उससे उपजे भारी असंतोष के कारण अनिश्चितकालीन रेल हड़ताल के पक्ष में रेलकर्मियों सहित सभी केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों ने उत्स्फूर्त समर्थन घोषित कर दिया, तब पुनः श्रमिक नेताओं द्वारा सरकार के एक सामान्य आश्वासन या बिना किसी पुख्ता घोषणा के ही चौथी बार हड़ताल को स्थगित कर देने या उससे भाग खड़े होने पर उन्होंने अपनी बची-खुची गरिमा और भरोसे को भी पूरी तरह से गंवा दिया है. अब चार महीने बाद तथाकथित समिति द्वारा उपरोक्त दोनों मुद्दों पर क्या अनुशंसा की जाएगी, और क्या वास्तव में श्रमिक नेता अपने कर्मचारी साथियों को कुछ दिला पाने में समर्थ हो सकेंगे, इस बारे में फिलहाल न तो कुछ नहीं कहा जा सकता है, और न ही संबंधित नेतागण कुछ कहने की स्थिति में रह गए हैं. उन्होंने ‘गोपनीय’ – ‘अगोपनीय’ चिट्ठियों के माध्यम से सभी कर्मचारियों और क्षेत्रीय नेताओं को उनके सहयोग के लिए धन्यवाद तो ज्ञापित कर दिया है, मगर किसी नेता ने अब तक कोई सार्वजनिक सभा लेने की घोषणा नहीं की है. जबकि उन्हें अपनी इस ‘जीत’ के लिए सार्वजनिक तौर पर सभाएं करके सभी सरकारी कर्मचारियों एवं सभी क्षेत्रीय नेताओं का शुक्रिया अदा करने उनके सामने आना चाहिए था.
तथापि, यह ठीक है कि लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपना अधिकार हासिल करने का हक है और इसके लिए धरना-मोर्चा एवं आंदोलन करने का भी अधिकार है. परंतु पिछले करीब दो-ढ़ाई साल के दरम्यान सरकारी कर्मचारी धरना-मोर्चा आंदोलन करने सहित सातवें वेतन आयोग से उन्हें क्या मिलने वाला है, आदि को लेकर जिस तरह से अपने गुणा-भाग करने में लगे हुए थे, इनमें कार्यालयीन कर्मचारी ही ज्यादातर लिप्त थे, उससे बड़े पैमाने पर मानव घंटों एवं कार्य दिनों का नुकसान हुआ है, जो कि एक राष्ट्रीय क्षति ही कही जाएगी, इस बारे में सरकार को अवश्य सोचना चाहिए. यदि साकार समय रहते सार्वजनिक एवं कर्मचारी हित के फैसले कर ले, तो न सिर्फ इस भारी राष्ट्रीय क्षति से बचा जा सकता है, बल्कि इसे राष्ट्र के विकास की तरफ मोड़ा जा सकता है, जो कि वर्तमान केंद्र सरकार का एजेंडा भी है.इसके साथ सभी श्रमिक संगठनों को भी कर्मचारी हितों की अपनी पारंपरिक भूमिका को निभाने के साथ ही अब इस बारे में सोचना चाहिए कि इस राष्ट्रीय क्षति को रोककर इसे किस तरह राष्ट्र निर्माण की तरफ मोड़ा जाए. इसके लिए उन्हें सर्वप्रथम प्रशासनिक भ्रष्टाचार और जोड़तोड़ से दूर रहना होगा और राष्ट्र एवं कर्मचारी हितों के लिए निष्पक्ष एवं विशुद्ध रूप से काम करना होगा.