वर्चस्व कायम रखने की लड़ाई
डीजी/आरपीएफ के पद पर अपना कब्जा छोड़ने को तैयार नहीं आईपीएस
सुरेश त्रिपाठी
इस मामले में आईपीएस एसोसिएशन ने भी ‘पार्टी’ बनने की अनुमति सुप्रीम कोर्ट से मांगी थी. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें पार्टी बनने की अनुमति तो प्रदान नहीं की, तथापि उन्हें अपने वकील के जरिए मामले में होने वाली बहस में भाग लेने की अनुमति अवश्य प्रदान कर दी है. जानकारों का मानना है कि इस मामले से आरपीएफ का वैसे तो कोई सीधा संबंध नहीं है, मगर सॉलिसिटर जनरल ने कोर्ट के सामने जबरदस्ती यह कह दिया कि आरपीएफ को भी इस मामले में शामिल किया जाए, जिसकी अनुमति कोर्ट ने प्रदान कर दी है. इस सुनवाई के मौके पर आरपीएफ के भी कई वरिष्ठ अधिकारी सुप्रीम कोर्ट में उपस्थित थे. उल्लेखनीय है कि आरपीएफ संगठित सर्विस के हरानंद बनाम भारत सरकार मामले में आरपीएफ सर्विस को भी एक संगठित सर्विस घोषित किए जाने का मामला अदालत तक पहुंचा था, जिसमें अदालत ने आरपीएफ सर्विस को भी एक संगठित सर्विस घोषित करने का निर्णय दिया था और संबंधित मंत्रालय (रेलवे) को इस संबंध में उचित कदम उठाने का निर्देश भी दिया था. इसी प्रकार वर्ष 2011 में पी. एस. रावल बनाम भारत सरकार मामले में भी सुप्रीम कोर्ट का निर्णय पी. एस. रावल के पक्ष में आया था.
आरपीएफ को संगठित सर्विस घोषित किए जाने और पी. एस. रावल के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के बाद उपरोक्त एसएलपी गृह मंत्रालय से दायर करवाई गई थी. जाहिर है कि यह कार्य आईपीएस एसोसिएशन अथवा आईपीएस लॉबी के दबाव में या उसके कहने पर ही किया गया होगा, क्योंकि इस मामले से गृह मंत्रालय का कोई सीधा संबंध नहीं था. वर्ष 2011 से अब तक यह मामला (एसएलपी) सुप्रीम कोर्ट में सोया पड़ा हुआ था. अब जब पी. एस. रावल को पीएमओ की पूर्व अनुमति से रेल मंत्रालय ने डीजी/आरपीएफ का अतिरिक्त चार्ज सौंप दिया है, तब उक्त एसएलपी भी अचानक उभर कर सतह पर आ गई है. हालांकि इस मामले में पी. एस. रावल को ही सुप्रीम कोर्ट में अपनी पैरवी करनी पड़ेगी.
वर्ष 1985 के संशोधित आरपीएफ एक्ट की धारा 19(2) में स्पष्ट प्रावधान किया गया था कि आरपीएफ में अब किसी प्रकार से आईपीएस की प्रतिनियुक्ति नहीं होगी. इसके साथ ही इसमें यह भी प्रावधान किया गया था कि उक्त संशोधन लागू होने के समय आरपीएफ में जो आईपीएस प्रतिनियुक्ति पर होंगे, उन्हें या तो फौरन उनके पैरेंट कैडर में वापस भेज दिया जाएगा, अथवा उन्हें जबरन सेवानिवृत्त कर दिया जाएगा. परंतु आरपीएफ में प्रतिनियुक्ति पर रहे तत्कालीन आईपीएस अधिकारियों ने सरकार की आंखों में धूल झोंककर न सिर्फ यह प्रावधान, बल्कि इसके साथ ही मान्यताप्राप्त आरपीएफ एसोसिएशन के बने रहने के प्रावधान को भी रेल मंत्रालय के नोटिफिकेशन से निकाल कर बाहर फेंक दिया, वह भी कानून मंत्रालय के गजट नोटिफिकेशन के बाद, जिसमें संसद द्वारा पारित संपूर्ण कानून को प्रकाशित किया गया था. यह खामी वर्ष 1998 में पुनर्स्थापित होने के बाद आरपीएफ एसोसिएशन ने पकड़ी और सरकार के संज्ञान में इसकी लिखित जानकारी दी. तब वर्ष 2006 में कानून मंत्रालय ने पुनः उक्त दोनों प्रावधानों को शामिल करते हुए ‘शुद्धि पत्र’ के रूप में एक और गजट नोटिफिकेशन प्रकाशित किया और रेल मंत्रालय को भी आदेश दिया था कि वह भी संपूर्ण गजट नोटिफिकेशन प्रकाशित करे.
मगर आज 10 साल बाद भी रेल मंत्रालय ने यह संशोधित गजट नोटिफिकेशन नहीं निकाला है और लगभग 31 साल से संसद द्वारा पारित कानून को ठेंगा दिखाकर पूरी व्यवस्था और पूरे देश को मूर्ख बनाया जा रहा है. इसका मतलब वही है, जो ऊपर कहा गया है, कि सरकार, मंत्री, संत्री सहित जुडिसियरी इत्यादि भी सब आईपीएस से डरते हैं. यही वजह है कि रेलवे बोर्ड की नौकरशाही भी दुम दबाकर पिछले 21+10 (31) साल से बैठी है. यदि अब तक रेल मंत्रालय में हुए निजाम और रेलवे बोर्ड के नौकरशाह चोर नहीं होते, तो उन्हें आईपीएस से डरने की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए थी. यह हम नहीं, बल्कि तमाम वह लोग कह रहे हैं, जो इन सब मामलों के प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं. इन जानकारों का कहना है कि आईपीएस के दबाव में सरकार और जुडिसियरी भी रहती है, मगर उनका यह भी कहना है कि यदि खुलकर सभी कानूनी पहलू व्यवस्था और अदालत के समक्ष रखे जाएंगे, तो उन तथ्यों को नजरअंदाज करना अथवा अन्याय कर पाना बहुत मुश्किल होगा. उनका यह भी कहना है कि तमाम केंद्रीय फोर्सेज के लोग आईपीएस की अपने यहां प्रतिनियुक्ति के विरुद्ध हैं. यह बात जुडिसियरी और सरकार के लोग भी बखूबी जानते है.
इस बीच रेल मंत्रालय ने रेलमंत्री की सहमति से गृह मंत्रालय को एक पत्र लिखकर उपरोक्त एसएलपी वापस लेने की बात कही है. इसके साथ ही पीएमओ ने भी रेल मंत्रालय को लिखा है कि नोडल मिनिस्ट्री होने के नाते रेल मंत्रालय आरपीएफ के कैडर को ठीक करे और उसे संगठित सर्विस का दर्जा देने का निर्णय करे. इसी आधार पर पीएमओ ने पी. एस. रावल को डीजी/आरपीएफ का अतिरिक्त चार्ज सौंपे जाने की अनुमति प्रदान की है. अब जब इस मामले में वास्तव में थोड़ा साहस दिखाते हुए रेल मंत्रालय ने पीएमओ के आदेश पर अमल करते हुए पी. एस. रावल को डीजी/आरपीएफ का अतिरिक्त चार्ज सौंप दिया है और उपरोक्त तमाम संदर्भों में अब तक काफी प्रगति हो चुकी है, तब अचानक उक्त एसएलपी सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट के पटल पर उभर आती है, यह एक संयोग मात्र नहीं हो सकता है. जाहिर है कि यह काम आईपीएस लॉबी के प्रयासों अथवा दबाव में हुआ होगा, क्योंकि आईपीएस लॉबी अपना वर्चस्व किसी भी हालत में कम नहीं होने देना चाहती है.
वर्चस्व की यह लड़ाई वास्तव में गलत दिशा में लड़ी जा रही है. सरकार, प्रशासन तंत्र और न्यायपालिका में से कोई भी इस बात की तरफ ध्यान नहीं दे रहा है कि जिसे अपना नुकसान रोकने की वास्तविक जिम्मेदारी और अधिकार मिलना चाहिए, यह उसे नहीं है, जबकि जिसे अधिकार और जिम्मेदारी दोनों सौंपी गई है, वह अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह नहीं कर रहा है. ध्यान देने वाली बात यह है कि बिना उत्तरदायित्व के जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं होता है. जीआरपी को अधिकार और जिम्मेदारी दोनों दी गई है, मगर रेलवे में यात्रियों एवं माल के प्रति होने वाले अपराधों की रोकथाम और उससे होने वाले नुकसान की भरपाई का उत्तरदायित्व नहीं दिया गया है. जबकि आरपीएफ (रेलवे) को जिम्मेदारी के साथ नुकसान की भरपाई करनी पड़ती है, मगर उसके पास इस नुकसान को रोकने का अधिकार नहीं है. ऐसे में रेलवे में रोजाना चलने वाले करीब तीन करोड़ रेलयात्रियों और लगभग 10 हजार मालगाड़ियों की सुरक्षा भगवान भरोसे रहती है. यह बहुत बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि जब देश में रजवाड़े नहीं रहे, उनकी रेल नहीं रही, देश के किसी राज्य की भी रेल नहीं है, तब संविधान की प्रोविंशियल लिस्ट में रेलवे के होने का कोई औचित्य नहीं है. संवैधानिक रूप से जब रेल केंद्र का विषय है, और जब नुकसान की भरपाई रेलवे कर रही है, तो नुकसान रोकने की सारी जिम्मेदारी भी केंद्र की ही है. यहां स्थिति यह है कि कानून-व्यवस्था राज्य का विषय होने का ढिंढोरा पीटने वाले लोगों को संवैधानिक स्थिति की भी कोई जानकारी नहीं है. वास्तव में राज्य अपने यहां अपराधों की संख्या कम रखने और अपनी पुलिस को पालने के लिए रेलवे को छोड़ना नहीं चाहते हैं. जबकि आईपीएस इसलिए रेलवे पर अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें अपने करीब 160 पद कम नहीं होने देना है. राष्ट्रहित में बहुत स्पष्ट और संवैधानिक प्रावधानों की सही परिभाषा के परिप्रेक्ष्य में सही निर्णय लिया जाना समय की जरूरत है, वरना आने वाली पीढ़ियां वर्तमान पीढ़ी को कभी माफ नहीं करेंगी!!