किसी खास कांट्रैक्टर को फेवर करने के लिए किया गया टेंडर

खास कांट्रैक्टर को टेंडर देने के लिए जानबूझकर कम रखी गई टेंडर कास्ट

शेड्यूल के अलावा ‘हिडेन आइटम’ से कांट्रैक्टर को ज्यादा लाभ पहुँचाने की तैयारी

सुरेश त्रिपाठी

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मध्य रेलवे, मुंबई मंडल द्वारा मंडल में ‘ट्रेन लाइटिंग कोचों का कॉम्प्रेहेन्सिव ऐन्यूअल मेंटेनेंस’ के एक टेंडर (नंबर बीबी/एलजी/डब्ल्यू/सीएसटीएम/2016/03) की ‘टर्म एंड कंडीशंस’ को देखकर ऐसा लगता है कि यह टेंडर सिर्फ इसलिए जारी किया जा रहा है, क्योंकि किसी खास कांट्रैक्टर को यह टेंडर देकर उसका फेवर करना है. इसके लिए टेंडर कास्ट को जानबूझकर कम रखा गया है. टेंडर डॉक्युमेंट के अनुसार उक्त टेंडर की कुल अनुमानित लागत 5,69,84,152 रुपए रखी गई. जबकि इसके सभी शेड्यूल आइटम एवं नॉन-शेड्यूल आइटम को देखने के बाद इस टेंडर की कुल लागत क करीब 12 से 15 करोड़ रुपए तक होनी चाहिए थी.

उक्त टेंडर की कुल विज्ञापित अनुमानित लागत जानबूझकर कम रखी गई है, क्योंकि विज्ञापित लागत पर 35% सिमिलर क्राईटेरिया (समान कार्य किए होने) और 150% फाईनेंसियल क्राईटेरिया होता है. यदि उक्त टेंडर की यह विज्ञापित लागत सही होती, तो जिस पार्टी को फेवर किया जाने वाला है, वह टेंडर में पार्टिसिपेट ही नहीं कर पाती. इसके अलावा जहां तक ‘सिमिलर नेचर आफ वर्क’ की बात है, तो यह अत्यंत संदिग्ध है, क्योंकि इसकी वजह से जो सही पार्टियाँ हैं, वह इसमें भाग ही नहीं ले पाई हैं. यही वजह है कि टाटा ग्रुप की एक अत्यंत सक्षम कंपनी ‘स्टर्लिंग एंड विल्सन’ इसमें भाग लेने से वंचित (बाईपास) कर दी गई, जबकि हाल ही में दक्षिण पश्चिम रेलवे ने उक्त कंपनी को ऐसे ही एक कार्य के लिए लगभग 24-25 करोड़ रुपए का टेंडर दिया है. इसके अलावा उसने ऐसे अन्य कई बड़े काम किए हैं.

उपरोक्त टेंडर की ऐसी घिसी-पिटी क्राईटेरिया रखकर वास्तव में टेंडर के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि उक्त टेंडर 22 अगस्त, 2016 को खुला था. अब करीब छह महीने बाद इसकी टीसी हो रही है, जिसके कन्वेनर सीनियर डीईई/कोचिंग हैं. टेंडर में किए गए प्रत्येक प्रावधान की कास्टिंग होनी चाहिए थी, मगर यह नहीं की गई है. टेंडर के पैरा 5.1.24 में दिए गए हिडेन नॉन-शेड्यूल आइटम के साथ यदि उक्त टेंडर की सही कास्टिंग की जाती, तो सिर्फ इसी एक आइटम की कुल कास्ट लगभग एक करोड़ रुपए से ज्यादा होती. इस पैरा में किए गए छुपे प्रावधान का मतलब ही यही है कि किसी एक खास कांट्रैक्टर को बाद में मदद करने के लिए यह सब किया जा रहा है, जबकि बाकी लोगों (पार्टियों) को दिग्भ्रमित करना है. अकाउंट्स की दृष्टि से यह बहुत महत्वपूर्ण है.

ज्ञातव्य है कि कोच का मेंटेनेंस हमेशा यार्ड में होता है. यार्ड में पूरी गाड़ी का मेंटेनेंस किया जाता है. इसके बाद उक्त गाड़ी अपने छूटने के निर्धारित समय से आधा-पौना घंटा पहले प्लेटफार्म पर आती है. यहाँ उसके अपर क्लास कोचों की प्री-कूलिंग की जाती है. यह प्री-कूलिंग कोच के कूलिंग सिस्टम से नहीं, बल्कि प्लेटफार्म से चार्जिंग लेकर की जाती है, क्योंकि यदि इसके लिए कोच का कूलिंग सिस्टम इस्तेमाल किया जाता है, तो उसकी बैटरी डिस्चार्ज हो जाती है. ऐसा इसलिए किया जाता है, क्योंकि उक्त बैटरी चलती गाड़ी में तो रीचार्ज होती रहती हैं, मगर खड़ी हुई गाड़ी में डिस्चार्ज हो जाती हैं. इसके साथ ही कोच की लाइट्स और फ़ैन भी चालू करना होता है.

अब तक उपरोक्त सभी कार्य अब तक विभागीय स्टाफ कर रहा था, मगर अब स्टाफ की कमी के चलते यह सभी कार्य कांट्रैक्ट में दिए जा रहे हैं. अब उक्त टेंडर में यह सभी कार्य कांट्रैक्टर को करने के लिए कहा गया है. यह सभी गतिविधियाँ मेंटेनेंस से नहीं, बल्कि ऑपरेशन से संबंधित हैं. उक्त टेंडर कंडीशन की बेहद दिग्भ्रमित करने वाली भाषा के अनुसार कांट्रैक्टर को ऐसी प्रत्येक गाड़ी के लिए तीन इलेक्ट्रिशियन और तीन फिटर प्लेटफार्म पर देने होंगे. मगर इसमें यह कहीं नहीं लिखा गया है कि कौन से प्लेटफार्म पर देने होंगे? कहाँ-कहाँ देने होंगे? सीएसटी में? एलटीटी में? अथवा दादर में? इसका कुछ भी स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है.

टेंडर में कहा गया है कि मुंबई डिवीजन के कोचों का मेंटेनेंस करना है. मगर इसमें यह कहीं नहीं कहा गया है कि किस-किस प्लेटफार्म पर यह काम किया जाना है? मुंबई मंडल में सैकड़ों प्लेटफार्म हैं. तीन टर्मिनस हैं. ऐसे में कोई भी कांट्रैक्टर आखिर कितने आदमी रखेगा? और कहाँ-कहाँ रखेगा? रेलवे ने खुद इस काम के लिए अपने तौर पर कितने आदमी रखे थे? यदि विभागीय स्टाफ के रिप्लेसमेंट में कांट्रैक्टर को यह आदमी रखने हैं, तो भी टेंडर में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया जाना चाहिए था. इसके साथ ही प्लेटफ़ार्म्स और गाड़ियों के साथ ही आदमियों की संख्या का भी टेंडर में स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए था.

उपरोक्त वर्गीकरण के अनुसार ही टेंडर की कास्टिंग होनी चाहिए थी. इसके साथ ही किस कैटेगरी के और कितने आदमी रखे जाने हैं, इसका भी स्पष्ट उल्लेख इनकी प्रॉपर कास्टिंग के साथ किया जाना चाहिए था. प्लेटफ़ार्म्स की सही संख्या का स्पष्ट उल्लेख नहीं होने से उन पर लगाए जाने वाले आदमियों की सही संख्या की गणना भी नहीं की जा सकती है. ऐसे में उक्त टेंडर की सही और वास्तविक अनुमानित लागत नहीं निकाली जा सकती है. प्लेटफार्मों की संख्या का स्पष्ट उल्लेख नहीं होने से वहाँ लगाए जाने वाले आदमियों की सही संख्या निर्धारित नहीं की जा सकती है. यदि यह आदमी सिर्फ एक ही प्लेटफार्म पर या एक ही टर्मिनस पर लगाए जाने हैं, तो टेंडर की कास्ट स्वयं ही कम हो जाएगी. टेंडर आवंटन के बाद कांट्रैक्टर इसे कैसे मैनेज करता है, यह बाद की बात है.

उक्त प्रकार की गोलमोल भाषा का इस्तेमाल पहले भी होता रहा है. पश्चिम रेलवे, मुंबई सेंट्रल मंडल का ऐसा ही एक महा-चालबाज़ सीनियर डीईई भी ऐसी ही भाषा का इस्तेमाल अपने टेंडर्स में किया करता था. जैसे वह कंट्रोल पैनल में कॉपर का आइटम डाल देता था. कॉपर बहुत वजनी और मंहगा आइटम होता है, यह सबको पता है. इसकी पूरी लागत इसके वजन और साइज पर निर्भर करती है. वह टेंडर में कम रेटिंग के कंट्रोल पैनल दर्शाता था. यदि 50 एम्पियर का 40 एमएम का बार सही है. मगर वह 40 एमएम की जगह 400 एमएम बार लिखता था. ऐसे में जो होशियार या समझदार कांट्रैक्टर होता था, वह 400 एमएम बार देखकर उसका दस गुना रेट भरता था. मगर जिस कांट्रैक्टर के साथ उसकी ‘सेटिंग’ होती थी, उससे वह पहले ही इसका कम रेट भरने के लिए कह देता था. टेंडर आवंटन के बाद वह उक्त कांट्रैक्टर को यह कहकर एक पत्र लिखने को कहता था कि यह टाइपिंग की गलती है, वास्तव में यह 400 नहीं, बल्कि 40 एमएम बार होना चाहिए. इसे वह अपना अप्रुवल दे देता था.

मुंबई मंडल, मध्य रेलवे के उपरोक्त टेंडर में भी मुंबई सेंट्रल मंडल के उक्त सीनियर डीईई की यही मोडस आपरेंडी अपनाई जा रही है. उक्त टेंडर आवंटन के बाद संबंधित कांट्रैक्टर से एक पत्र लिखवाया जाएगा कि उसने कम रेट पर टेंडर लिया है, इसलिए उसे किसी एक प्लेटफार्म पर आदमी लगाने की अनुमति दी जाए. इसके बाद उसको दादर या सीएसटी अथवा एलटीटी में अपने दो-चार आदमी लगा देने की अनुमति दे दी जाएगी. जब इसकी बिलिंग होगी, तब इस बात का कोई उल्लेख ही नहीं होगा, क्योंकि यह शेड्यूल आइटम ही नहीं है. शेड्यूल में जो सिर्फ पांच आइटम हैं, उनका इससे कोई संबंध ही नहीं है. इस प्रकार पूरा टेंडर मिसलीड हो जाता है. इसी प्रकार से मुंबई सेंट्रल मंडल के उक्त सीनियर डीईई ने करोड़ों रुपए बनाए थे, जिसके लिए उसको सीबीआई ने पकड़ा था.

मुंबई मंडल, मध्य रेलवे का उपरोक्त टेंडर भी समान लाइन पर जा रहा है. इस टेंडर के आवंटन के बाद अकाउंट्स विभाग इसे पकड़ भी नहीं पाएगा और वह चाहेगा भी तो इस बारे में कुछ नहीं कर पाएगा. उक्त टेंडर में अकाउंट्स से सिर्फ शेड्यूल आइटम की ही वेटिंग कराई गई. उपरोक्त तमाम नॉन-शेड्यूलड आइटम जब शेड्यूल में ही नहीं हैं, तब इनकी तरफ शायद अकाउंट्स विभाग का ध्यान भी नहीं गया होगा.

इस बारे में जब ‘रेलवे समाचार’ ने सीनियर डीईई/कोचिंग श्री बिस्नोई, जो कि टीसी के कन्वेनर भी हैं, से बात की और उनसे उपरोक्त तमाम विसंगतियों के बारे में पूछा, तो उनका सिर्फ यह कहना था कि वह इस पर विचार करेंगे.

इसके साथ ही ‘रेलवे समाचार’ ने सीनियर डीएफएम को भी इस बारे में पूरी जानकारी देकर उनका पक्ष जानना चाहा, तो उन्होंने भी कहा कि वह अवश्य इसकी गहराई से छानबीन करेंगी.

परंतु प्राप्त ताजा जानकारी के अनुसार सीनियर डीईई/कोचिंग इस टेंडर को फाइनल करने में लगे हुए हैं. यदि इतनी विसंगतियों और खामियों के बावजूद यह टेंडर आवंटित किया जाता है, तो यही समझा जाएगा कि रेलवे को लूटने और लुटाने में कोई भी कसर बाकी नहीं छोड़ी जा रही है.

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