सिग्नल विभाग के ग्रुप ‘बी’ प्रमोटी अधिकारियों की किस्मत चमकी
Think from the perspective of the people and take decision on time for the benefit of them.
सिग्नल विभाग में जारी किए गए एसएजी के नए इम्पैनलमेंट में 34 में से 32 प्रमोटी!
प्रमोटियों को थोक के भाव मिला एसएजी/संयुक्त सचिव में पदोन्नति का अवसर
ग्रुप सी/डी में पैदा होने के बाद भी मिला एसएजी/संयुक्त सचिव बनने का मौका
सीधी भर्ती वाले ग्रुप ‘ए’ अधिकारियों के गाल पर पड़ा है यह एक करारा तमाचा
रेल वह महकमा है जहां धन-बल पर ग्रुप ‘डी’ में भर्ती होकर यथासमय यही प्रक्रिया अपनाते हुए एसएजी/एचएजी तक पहुंचा जा सकता है!
सुरेश त्रिपाठी
स्याह को सफेद करना रेलवे बोर्ड के अधिकारियों के बाएं हाथ का खेल है। यहां मियां की सबॉर्डिनेट उसकी बीवी हो सकती है, बल्कि है। मियां जी के नाम पर उसका ओएसडी समस्त ट्रांसफर-पोस्टिंग-प्रमोशन सहित मनचाहे पदों पर नियुक्ति की खुलेआम “डीलिंग” कर सकता है। रेलवे से इस्तीफा देकर चला गया कोई पार्सल पोर्टर यहां यूनियन लीडर बन सकता है। यही नहीं, मियां जी की मेहरबानी से समस्त स्थापित नियम-कानून को दरकिनार करते हुए यह पार्सल पोर्टर एनसी-जेसीएम का सदस्य बन सकता है और भारत सरकार के उच्चाधिकारियों के समकक्ष बैठकर उनसे बार्गेनिंग कर सकता है।
यही भी शायद पर्याप्त नहीं है, इस पार्सल पोर्टर के खिलाफ पीएमओ से वाया रेल मंत्रालय सीबीआई को रेफर हुआ 1500 करोड़ के घपले का मामला भी बिना किसी उचित निष्कर्ष के रफा-दफा हो जाता है और किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। तथापि तारीफ यह कि फोन करके इन मियां-बीवी के चापलूस अधिकारी और यूनियन नेता “रेलसमाचार” को धमका सकते हैं कि उनके निकम्मे और अकर्मण्य आका के बारे में कुछ न लिखा जाए।
रेल वह महकमा है जहां 5-10 लाख की रिश्वत देकर ग्रुप ‘डी’ में खलासी, हेल्पर, चपरासी से भर्ती होकर बाद में यथासमय यही प्रक्रिया अपनाते हुए एसएजी/एचएजी तक आराम से और आसानी से पहुंचा जा सकता है। इसके लिए हर बार केवल राशि डबल होती जाएगी। इस स्थिति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वह लोग मूर्ख हैं, जो सालों-साल, रात-दिन कड़ी मेहनत और पढ़ाई-लिखाई करके यूपीएससी पास कर रेल में अधिकारी बनते हैं। यहां ऐसे भी कई मामले हैं, जहां बंगला प्यून से भर्ती हुआ आदमी एसएजी तक जा पहुंचा है।
अब इसी तरह की मिसाल एक बार फिर, वह भी थोक के भाव में, रेलवे बोर्ड ने प्रस्तुत किया है, देखें पूरा मामला-
यह सर्वविदित हैं कि इस प्रकार की परिस्थिति आगे भी बनी रहने वाली है, क्योंकि सीधी भर्ती वाले ग्रूप ‘ए’ अधिकारियों को विभागवाद और कमाई के सिवा कुछ और नजर ही नहीं आता है। कैडर की प्लानिंग, जूनियर अधिकारियों के प्रमोशन पर चिंता, योग्य और निष्ठावान अधिकारियों की उचित पोस्टिंग आदि से उनका कोई सरोकार नहीं रह गया है।
जाहिर है कि रेलवे बोर्ड में उच्च पदों पर बैठे वरिष्ठ रेल अधिकारी, रेलवे का बंटाधार करने में लगे हुए हैं। एसएजी अधिकारी पर प्लानिंग के साथ-साथ वर्क एग्जीक्यूशन की भारी जिम्मेदारी रहती है, ऐसे में इस प्रकार का प्रयोग करना रेल प्रशासन को आगे चलकर बहुत महंगा पड़ने वाला है।
प्रमोटी बनाम सीधी भर्ती के मुद्दे पर वर्षों से “रेलसमाचार” ने अपनी कई सीरीज के माध्यम से इस पूरे घटनाक्रम पर बेबाकी के साथ सच्चाई को सभी के सामने उजागर किया है।
यह पूरा प्रकरण वर्ष 2001 में बाजपेयी सरकार द्वारा ऑप्टिमिजेशन पॉलिसी से शुरू होता है, जिसमें कुल रिक्त पदों में से सिर्फ एक तिहाई पदों पर ही रिक्रूटमेंट करना था। परंतु बड़ी चालाकी से रेलवे बोर्ड द्वारा सीधी भर्ती वाले ग्रुप ‘ए’ के पदों में कटौती कर दी गई और प्रमोटी कोटे की यथास्थिति बरकरार रखी गई। यह कैसे हुआ, क्यों हुआ, इसके निहितार्थ क्या थे, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।
आगे चलकर रेलवे बोर्ड द्वारा वर्ष 2004, 2005 और 2006 में यूपीएससी को भेजे गए इंडेंट्स में सीधी भर्ती वाले ग्रुप ‘ए’ के रिक्त पदों को बैकलॉग घोषित कर सभी ग्रूप ‘ए’ के वरीय पदों को प्रमोटी अधिकारियों को उपहार स्वरूप दे दिया गया। इस पूरे खेल के सभी संबंधित और प्रमाणिक दस्तावेज “रेलसामाचार” के पास उपलब्ध हैं।
इसके फलस्वरूप विगत दिनों रेलवे बोर्ड द्वारा सिग्नल विभाग में जारी किए गए एसएजी/जॉइंट सेक्रेटरी के इम्पैनलमेंट पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि इसकी पटकथा वर्षो पहले ही लिख ली गई थी, जिसको कैडर रिस्ट्रक्चरिंग के रूप में अब दृश्य पटल पर उतारा गया है। अन्यथा यह कैसे संभव है कि जिनको ढ़ंग से एक लाइन लिखना भी नहीं आता, न ही सही तरीके से एक ड्राफ्ट बना सकते हैं, थोक के भाव ग्रुप डी/सी से पदोन्नत होकर आए ऐसे कर्मचारियों का एसएजी/जॉइंट सेक्रेटरी स्तर के उच्च पदों पर इम्पैनलमेंट हो जाए!
विगत वर्षों में सीधी भर्ती वाले ग्रुप ‘ए’ और ग्रूप ‘बी’ अधिकारियों के बीच वरीयता के मुद्दे पर कोर्ट केस सर्वोच्च अदालत में पहुंचा था, परंतु सुप्रीम कोर्ट ने एंटी-डेटिंग मुद्दे पर फ्रेश केस फाइल करने की सलाह दी थी, जिससे सीधी भर्ती वाले युवा अधिकारी आहत होकर शांत पड़ गए, क्योंकि उनके पास सुप्रीम कोर्ट के वकीलों को हर पेशी पर 20-25 लाख की फीस देने का धन-बल नहीं था, जबकि अपोजिट पक्ष के पास ऐसी कोई कमी नहीं थी और साथ ही उसे रेलवे बोर्ड का छिपा समर्थन भी प्राप्त था। इसके दुष्परिणाम स्वरूप आज एक विभाग के 34 में से 32 प्रमोटी अधिकारियों को सोने की थाली में परोसकर मलाई खाने को दी जा रही है। यह निश्चित रूप से जोड़-तोड़, लेन-देन और आंतरिक गठजोड़ का मामला है।
यह सर्वविदित है कि 99% ग्रुप ‘सी’ रेलकर्मी धन-बल की बदौलत ग्रुप ‘बी’ में पदोन्नति लेकर आते हैं और फिर पूरी सर्विस सिर्फ पैसा कमाने, चापलूसी तथा चमचागीरी करने में बिता देते हैं, जिसका लाभ उन्हें आगे की अन्य पदोन्नति पाने में मिलता है। वरना आज यह कैसे संभव हो पा रहा है कि जो लोग 12-15-18 साल तक कभी सीनियर स्केल पाने को तरसते थे, वह आज अचानक एसएजी/संयुक्त सचिव और उससे ऊपर तक पहुंचने लगे हैं?
हालांकि, “रेलसमाचार” को इससे कोई ऐतराज नहीं है, न ही इस सब से “रेलसमाचार” का कोई नफा-नुकसान होने वाला है। यह सही है कि योग्यता, क्षमता और अनुभव को निश्चित रूप से यथोचित सम्मान मिलना चाहिए, परंतु इसमें कोई जोड़-तोड़ अथवा आंतरिक सेटिंग भी नहीं होनी चाहिए, यह भी सही है।
रेलवे की यही विडंबना है, जो कि सबको बखूबी मालूम है। वह यह कि “गलत हो रहा है, परंतु कोई भी इस मुद्दे को हाईलाइट करना या उठाना नहीं चाहता।” ऐसे में हमारी यह नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है कि इस पूरे मुद्दे को बेबाकी से सबके सामने लाया जाए और सभी को इस पर विचार करने के लिए मजबूर किया जाए कि “रेलवे में जो कुछ हो रहा है, वह सही नहीं हो रहा है।” इन घोटालों की परतें कब और कैसे खुलेंगी, फिलहाल यह कह पाना संभव नहीं है।
सीधी भर्ती युवा अधिकारियों पर दिग्भ्रमित होने और काम पर ध्यान न देने का लगा था आरोप:
कहने का तात्पर्य यह है कि बाड़ ही खेत खा रही है, यानि पैरेंट्स की भूमिका में पहुंच चुके वरिष्ठ रेल अधिकारी ही अपनी संतानों अर्थात जूनियर्स के दुश्मन बने हुए हैं। यही वजह है कि वह नहीं चाहते हैं कि ग्रुप ‘बी’ में योग्य कर्मियों का चयन केंद्रीयकृत व्यवस्था के तहत रेलवे बोर्ड स्तर पर या यूपीएससी अथवा आरआरबी के माध्यम से किया जाए, क्योंकि ऐसा होने पर वह अपनी अवैध कमाई यानि अपने ही मातहतों की खाल नोचने से महरूम हो जाएंगे।
सिग्नल विभाग के इस आदेश (इम्पैनलमेंट) को देखने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि रेलवे बोर्ड की पूरी की पूरी दाल ही काली है। युवा अधिकारी तो मात्र एक बहाना थे। विगत वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय से राहत मिलते ही प्रमोटी कुनबा एकजुट होकर अपने फायदे के लिए हरसंभव प्रयास किया, जिसका परिणाम आज सामने दिखाई दे रहा है।
रेलवे बोर्ड में व्याप्त अंतर्विभागीय भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता और अयोग्य तथा गैर अनुभवी जूनियर अधिकारियों को बोर्ड की पोस्टिंग में मिल रही वरीयता इत्यादि से अत्यंत खिन्न एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना था कि “अभी तो यह ट्रेलर है, पूरी पिक्चर तो आगे देखने को मिलने वाली है, जब इस प्रकार की पदोन्नतियों वाले आर्डर सभी विभागों में निकलेंगे।”
ऐसी स्थिति में ये देखना बड़ा ही दिलचस्प होगा कि रेलवे बोर्ड इस मुद्दे पर सूवो मोटो किसी कमेटी का गठन करता है, या प्रमोटी और सीधी भर्ती वाले अधिकारियों को एक बार फिर कोर्ट में आमने-सामने खड़े होने के लिए मजबूर किया जाएगा और बोर्ड में बैठे अयोग्य लोग कुटिल मुस्कान के साथ ताली पीट-पीटकर दोनों की इस आपसी लड़ाई का आनंद लेंगे, जो कि वास्तव में उनकी अकर्मण्यता का ही दुष्परिणाम होगी।
मामला अत्यंत गंभीर है। अतः यह तय है कि अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझते हुए “रेलसामाचार” इस मुद्दे पर साक्ष्यों के साथ सभी संबंधितों को यथासमय वस्तुस्थिति से अवगत कराता रहेगा।
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