क्या निरंकुश हो रही है आरपीएफ?
पीसीसीएम के साथ पटना जंक्शन रेलवे स्टेशन पर आरपीएफ सिपाही का दुर्व्यवहार
जब विभाग प्रमुख के साथ बदतमीजी होती है, तब रेलयात्रियों के साथ क्या होता होगा!
सुरेश त्रिपाठी
इस घटना की खबर ‘रेलसमाचार’ को 23.21 बजे मिली. तत्काल पीसीसीएम/पू.रे. श्री मेहता को उनके मोबाइल पर संपर्क करके घटना की पुष्टि की गई. तत्पश्चात जब उनसे यह पूछा गया कि इतनी रात को वह पटना में प्लेटफार्म पर क्या कर रहे थे? इसके जवाब में उन्होंने बताया कि ‘वह यहां रेलवे क्लेम्स ट्रिब्यूनल (आरसीटी) से संबंधित एक बैठक में भाग लेने आए थे और यहीं प्लेटफार्म नं.1 के ऊपर बने ऑफिसर्स रेस्ट हाउस में ठहरे हुए हैं. उन्होंने बताया कि अभी वह रात का खाना खाकर थोड़ा टहलने के लिए नीचे उतरे और जब आईएसएस के सामने से गुजरे, तो पीछे से सिपाही ने आवाज देकर रुकने के लिए कहा. वह रुके और कारण पूछा, तो सिपाही दुर्व्यवहार करने लगा. उसे अपना परिचय भी दिया, तब भी वह कोई बात सुनने के लिए तैयार नहीं था और अन्य कई सिपाहियों को बुलाकर ज्यादा अभद्रता करने पर उतारू हो गया, जब उन्होंने जीएम को कॉल किया, तब उनके तेवर कुछ ठंडे पड़े. हालांकि देर रात होने से जीएम ने कॉल रेस्पोंड नहीं की.’
इसके अलावा उनके इस आतंरिक असंतोष को न कोई सुनने वाला है, और न ही कोई उसका समाधान करने वाला है, क्योंकि सुनने और समाधान करने के लिए जो लोग प्राधिकृत हैं, पहली बात तो उन्हें अपने ‘मालिकों’ की चरण-चाटुकारिता से फुर्सत नहीं है. दूसरी बात यह कि उन्हें निचले स्तर की समस्याओं और नीचे के लोगों (सिपाहियों) की परेशानियों से कोई सरोकार भी नहीं है, क्योंकि वह समाज में नहीं रहते हैं. ऐसे में अब यदि आरपीएफ जवानों को अपना यह असंतोष कहीं जाहिर करना ही है, तो यह उन्हें अपने विभागीय उच्च अधिकारियों के प्रति ही जाहिर करना चाहिए, तभी उनकी समस्याओं का कोई हल निकल सकता है, क्योंकि यदि उनका यही रवैया रहा और उन्होंने अधिकार एवं वर्दी का दुरुपयोग रेल अधिकारियों और कर्मचारियों के विरुद्ध ही करना जारी रखा, तो जिन अधिकारियों ने आरपीएफ को केंद्रीय गृहमंत्रालय के अधीन जाने का विरोध किया था, वह खत्म हो सकता है.
एक तरफ रेलमंत्री और डीजी/आरपीएफ लगातार रेलवे की चाक-चौबंद सुरक्षा व्यवस्था के बारे में लंबी-लंबी तकरीरें करते हैं, सोशल मीडिया पर इसका खूब प्रचार-प्रसार किया जा रहा है. हाल ही में रेलमंत्री ने रेलयात्रियों की सुरक्षा हेतु ‘कमांडोज फॉर रेलवे सिक्योरिटी’ (कोरस) विशेष फोर्स का गठन किए जाने संबंधी घोषणा ट्वीटर पर करते हुए कहा कि ‘देश आज आतंरिक और बाहरी सभी प्रकार के खतरों से सुरक्षित है.’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘बेहतरीन प्रशिक्षण, अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित युवा कमांडोज की यह यूनिट सभी प्रकार के खतरों से निपटने के लिए सक्षम है.’
दूसरी तरफ मुंबई सबर्बन के अतिव्यस्त उपनगरीय रेलवे स्टेशन ठाणे के प्लेटफार्म की बेंच पर बैठकर आसपास से बेखबर इसी फोर्स के होनहार युवा जवान सोशल मीडिया में व्यस्त देखे जा सकते हैं. इसके अलावा आए दिन किसी न किसी ट्रेन का कोच अथवा यात्री लुट-पिट रहे हैं. छीना-झपटी का शिकार हो रहे हैं. किन्नरों की भयंकर और अश्लील ज्यादती के साथ जबरन वसूली से लाखों यात्री उत्पीड़ित हैं. जबकि लाखों अवैध-अनधिकृत खानपान वेंडरों के माई-बाप आरपीएफ और जीआरपी वाले ही बने हुए हैं, जिनके अत्याचारों से परेशान, सड़ा-गला-बासी और कीट-पतंगों से भरपूर खानपान सामग्री लेने सहित रोज ओवरचार्जिंग का शिकार हो रहे सभी 22-24 हजार ट्रेनों के लगभग डेढ़-दो करोड़ रेलयात्रियों का तो कोई माई-बाप ही नहीं रह गया है. ऐसे में इनके खिलाफ हफ्ते-दस दिन की मुहिम को रेलयात्री दिखावा ही मानते हैं, क्योंकि ऐसी मुहिमें मंत्री और शीर्ष संतरी के सामने सिर्फ आंकड़े प्रस्तुत करने के लिए ही होती हैं, जबकि जमीनी हकीकत में कोई बदलाव नहीं हुआ होता है.
मंत्री को यदि वास्तव में ऐसी मुहिमों की हकीकत जाननी है, तो ज्यादा नहीं सिर्फ एक जोन अथवा एक मंडल से मात्र एक-दो महीने के आंकड़े मंगाकर देख लिए जाएं, जिनसे यह स्पष्ट हो जाएगा कि वही-वही लोग, वही-वही चेहरे होते हैं, जिन्हें अलग-अलग दिनों और स्थानों से पकड़ा गया दिखाकर कागजी खानापूर्ति की जाती है. यही नहीं, आरपीएफ पोस्ट से आरोपी अथवा पकड़े गए अवैध वेंडर को डेढ़ से तीन हजार रुपये के नकद मुचलके पर अगले दिन कोर्ट में हाजिर होने के नाम पर या शर्त पर छोड़ दिया जाता है, जबकि अमूमन आरोपी कभी वापस आता ही नहीं, यदि आता भी है, तो कोर्ट से सजा/दंड के बाद बकाया राशि शायद ही कभी उसे लौटाई जाती है. किसी न किसी बहाने फोर्स में आतंरिक भ्रष्टाचार और बाहरी अवैध वसूली हमेशा चरम पर रहती है. इस पर इसलिए किसी को ध्यान देने में रुचि नहीं है, क्योंकि पीड़ित सबसे नीचे का सिपाही होता है.
अब जहां तक तथाकथित इंटीग्रेटेड सिक्योरिटी सिस्टम (आईएसएस) की बात है, तो इस सारे कथित सिस्टम का पूरी भारतीय रेल में बंटाधार हुआ पड़ा है. करोड़ों-अरबों रुपये इसके लिए खर्च किए गए हैं, मगर जब सभी रेलवे स्टेशन दसों दिशाओं से खुले पड़े हों, तब ऐसे किसी सिस्टम का कोई औचित्य नहीं रह जाता है. सवाल यह भी है कि इस कथित आईएसएस में ऐसा क्या है कि इसके सामने से एक वरिष्ठ रेल अधिकारी के गुजरने मात्र से इसमें कोई सेंध लग सकती है? जब ग्रेड ‘ए’ ‘बी’ ‘सी’ के लगभग सभी रेलवे स्टेशनों पर सीसीटीवी लग चुके हैं, तब इन्हीं रेलवे स्टेशनों पर अवैध-अनधिकृत वेंडरों की भरमार कैसे है? इन्हें रोकने और पकड़ने, सजा दिलाने की जिम्मेदारी किसकी है? इस सब के लिए रेल राजस्व यानि जनता की गाढ़ी कमाई के जो हजारों करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं, वह क्या उच्च अधिकारियों की कमीशनखोरी के लिए किए गए हैं? यदि नहीं, तो फिर रेलवे स्टेशनों और चलती गाड़ियों तथा अन्य रेल परिसरों में अवैध-अनधिकृत वेंडरों, किन्नरों और लूटपाट करने वाले असामाजिक तत्वों की धमाचौकड़ी कैसे हो रही है?
वर्तमान केंद्र सरकार विगत में हुए तमाम घोटालों की परतें एक-एक करके उघाड़ रही है. ऐसे में उसे रेलवे में इस कथित आईएसएस के लिए खर्च किए गए हजारों करोड़ रुपये के हुए घोटाले की भी गहरी छानबीन करवाना चाहिए. इसके अलावा हाल ही में मनमाने तरीके से करीब 60 हजार आरपीएफ जवानों को दर-बदर करने और इसके लिए अनावश्यक रूप से हजारों करोड़ रुपये के ट्रांसफर भत्ते के भुगतान के औचित्य की भी जांच की जानी चाहिए. जांच इस बात की भी होनी चाहिए कि जब जवानों को अनावश्यक रूप से दर-बदर किया जा सकता है, तब आरपीएफ के तमाम अधिकारी एक ही जोन अथवा रेलवे बोर्ड में लंबे समय तक कैसे जमे रह सकते हैं? यही बात रेलवे के अन्य विभागों के सैकड़ों अधिकारियों पर भी लागू होती है. जब तक इस तरह की तमाम बातों और आतंरिक प्रशासनिक सुधारों पर पूरा ध्यान नहीं दिया जाएगा, तब तक रेलवे का उद्धार कभी संभव नहीं हो पाएगा.