रेलनीर घोटाला: रेलमंत्री ने ‘दिमाग’ का इस्तेमाल नहीं किया!
Delhi High Court. (File Photo: IANS)
मंत्री का प्रॉसिक्यूशन सेंक्शन आर्डर पूर्णतः अयोग्य है- दिल्ली हाई कोर्ट
एम.एस.चालिया और संदीप साइलस को अदालत ने बाइज्जत बरी किया
मंत्री और सीआरबी ने अपनी झूठी शान के लिए निष्कर्षों को दरकिनार किया
श्री चालिया एवं श्री साइलस ने सीवीसी के निष्कर्ष और डीओपीटी के दिशा-निर्देशों को दरकिनार करके रेलमंत्री द्वारा उनके विरुद्ध सीबीआई को प्रॉसिक्यूशन की अनुमति देने के आदेश को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी थी. उल्लेखनीय है कि श्री चालिया एवं श्री साइलस बारी-बारी से उत्तर रेलवे के सीसीएम/कैटरिंग के पद पर कार्य किए थे. परंतु रेलनीर का जो घोटाला सामने आया, वह उनके कार्यकाल से पहले का था. तथापि उसके लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराकर अथवा फंसाकर बलि का बकरा बनाकर इस घोटाले के असली गुनहगारों और उनकी काली करतूतों पर पर्दा डाला गया. सीबीआई ने इस संदर्भ में आईपीसी की धारा 120-बी, 420 तथा भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम की धारा 13(2) सहित 13(1)(डी) के तहत 14 अक्टूबर 2015 को एफआईआर (आरसी/2015) दर्ज की थी. उसके दो दिन बाद 16 अक्टूबर 2015 को उक्त दोनों अधिकारियों को निलंबित कर दिया गया था.
एफआईआर में आरोप लगाया गया था कि उक्त दोनों अधिकारियों ने रेलवे के ब्रांड ‘रेलनीर’ को प्रमुखता देने के बजाय पैकेज्ड ड्रिंकिंग वाटर की आपूर्ति करने वाले रेलवे लाईसेंसीज को ज्यादा तरजीह दी थी, जिससे रेलनीर की आपूर्ति कम हुई और रेलवे को भारी घाटा हुआ. उन पर यह भी आरोप लगाया गया कि रेलवे लाईसेंसीज द्वारा की जा रही गड़बड़ी को जानते हुए भी दोनों अधिकारियों ने उनके खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की और लगातार उनके भुगतान जारी करते रहे.
सीबीआई ने रेल मंत्रालय (रेलवे बोर्ड) की पूर्व अनुमति लिए बिना ही 16 दिसंबर 2015 को उक्त दोनों अधिकारियों के विरुद्ध अदालत में चार्जशीट दाखिल कर दी. इस दरम्यान रेल मंत्रालय की निलंबन पुनर्विचार समिति (सस्पेंशन रिव्यु कमेटी) ने दोनों अधिकारियों का निलंबन जारी रखने के औचित्य को इस आधार पर खारिज कर दिया कि चूंकि यह मामला रेलवे बोर्ड की तरफ से इस संस्तुति के साथ सीवीसी की एडवाइस के लिए भेजा गया है, कि ‘यह केस किसी भी कोर्ट ऑफ लॉ के तहत प्रॉसिक्यूशन के योग्य नहीं है और यहां तक कि इस पर किसी प्रकार का रेगुलर डिपार्टमेंटल ऐक्शन भी नहीं लिया जा सकता है’, इसलिए निलंबन जारी रखने का कोई कारण नहीं है. इस सिफारिश पर रेलवे बोर्ड ने ‘स्पेसिफिक अप्रूवल’ दिया गया था.
तत्पश्चात 18 अक्टूबर 2016 को सीवीसी की प्रॉसिक्यूशन की अनुमति नहीं दिए जाने की एडवाइस के निर्णय के साथ इस मामले को रेलवे बोर्ड द्वारा तत्कालीन ‘मुझुआ’ रेलमंत्री सुरेश पी. प्रभु के सामने प्रस्तुत किया गया. महान प्रभु ने कोई विचार-विमर्श किए अथवा अपना दिमाग लगाए बिना ही पूरे मामले पर सीबीआई की फिर से एडवाइस लेने की बात कहकर अपने सिर से बला टाल दी. इसके बाद पूरा मामला रेलवे बोर्ड की तरफ से पुनः सीबीआई और सीवीसी दोनों को उनकी नई एडवाइस के लिए भेजा गया. सीवीसी ने 2 नवंबर 2016 को अपनी पहले वाली यानि 2 मई 2016 को दी गई एडवाइस पर कायम रहते हुए उसे ही पुनः शब्दशः दोहराकर रेलवे बोर्ड को फाइल वापस भेज दी.
इस दरम्यान उचित निर्णय के आभाव में उक्त फाइल रेलवे बोर्ड में पेंडिंग पड़ी धूल खाती रही. इसी बीच अदालत के हस्तक्षेप से 14 मार्च 2017 को बिना अपने विवेक का इस्तेमाल किए अथवा दिमाग लगाए बिना ही रेलमंत्री ने हड़बड़ी में प्रॉसिक्यूशन की अनुमति प्रदान कर दी. उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि इससे उनके मंत्रालय की सार्वजनिक किरकिरी तो होगी ही, जो अपरोक्ष रूप से उनकी ही अकर्मण्यता को उजागर करेगी, बल्कि उक्त दोनों अधिकारियों को भी भारी आर्थिक नुकसान के साथ उनके कैरियर का भी भारी अहित होगा. इसके अलावा उन्हें जो मानसिक और सामाजिक यातना का शिकार होना पड़ेगा, वह अलग.
न्याय पाने के लिए अब तक ऐसा कोई दरवाजा नहीं बचा था, जिसे उक्त दोनों अधिकारियों ने नहीं खटखटाया था. अंततः वह ब्यूरोक्रेसी की सर्वोच्च संस्था ‘कैबिनेट सेक्रेटरी’ के दरबार में अपनी गुहार लेकर पहुंचे और उन्हें बताया कि उनके मामले में सीबीआई द्वारा किस-किस तरीके से डीओपीटी के तमाम दिशा-निर्देशों का उल्लंघन किया जा रहा है. उन्होंने कैबिनेट सेक्रेटरी को यह भी बताया कि सीवीसी ने भी यह कहते हुए रेलवे बोर्ड से जवाब-तलब किया है कि क्या इस मामले में प्रॉसिक्यूशन सेंक्शन मंजूर किए जाने से पहले डीओपीटी के दिशा-निर्देशों (ओएम्स) का अनुपालन किया गया है या नहीं? परंतु सीबीआई की दहशत कही जाए अथवा उत्तर रेलवे एवं आईआरसीटीसी सहित रेलवे बोर्ड के कुछ निहितस्वार्थी तत्वों की कुटिलता, इस पर रेलवे बोर्ड द्वारा सीवीसी को कोई सफाई अथवा जवाब नहीं दिया गया.
दिल्ली हाई कोर्ट ने शुक्रवार, 15 मार्च को दिए अपने आदेश में स्पष्ट कहा है कि प्रॉसिक्यूशन सेंक्शनिंग अथॉरिटी (रेलमंत्री) ने सीवीसी की एडवाइस का पूरी तरह अनादर करते हुए और डीओपीटी को संदर्भित किए बिना ही सेंक्शन ऑर्डर जारी किया. अपने ऑर्डर में कोर्ट ने यह भी कहा है कि इसके साथ ही इस मामले में सेंक्शनिंग अथॉरिटी ने अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया. इस मामले में डीओपीटी के ओएम दिनांक 15/17.10.1986, 06.11.2006 और 20.12.2006 के स्पष्ट संदर्भों को दरकिनार किया गया. अतः इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है.
हाई कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि इस मामले में उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर भारत के राष्ट्रपति की ओर से रेलमंत्री द्वारा दी गई प्रॉसिक्यूशन की अनुमति ग्राह्य नहीं हो सकती है. इसलिए उसे पूरी तरह से खारिज किया जाता है. इसी आधार पर हाई कोर्ट ने 1 जुलाई 2017 को ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश को भी रद्द कर दिया.
हाई कोर्ट के इस स्पष्ट आदेश के बाद ‘रेल समाचार’ का मानना है कि पूर्वाग्रही पूर्व रेलमंत्री और हुक्म के गुलाम रहे तत्कालीन सीआरबी उर्फ स्टोरकीपर के पास यदि वास्तव में दिमाग होता, तब तो वह उसका इस्तेमाल करते! इन दोनों प्राधिकारों ने अपनी झूठी शान के लिए सीवीसी और डीओपीटी के कानूनी रूप से तथ्यात्मक निष्कर्षों को न सिर्फ दरकिनार किया, बल्कि दोनों निर्दोष अधिकारियों का प्रशासनिक और मानसिक उत्पीड़न करने के साथ ही भारी आर्थिक एवं सामाजिक नुकसान भी पहुंचाया. ऐसे में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि देर से ही सही, मगर दोनों अधिकारियों को न्याय मिला और तत्कालीन रेलमंत्री एवं सीआरबी जैसे उच्च प्रशासनिक अहंकारी अहमकों की कलई भी खुल गई. ईश्वर उन्हें थोड़ी सदबुद्धि प्रदान करे!
प्रस्तुति : सुरेश त्रिपाठी