एआईआरएफ के आह्वान पर रेलकर्मियों ने मनाया काला दिवस

कोर्ट ने लार्जेस को ‘रिजेक्ट’ करने को कहा था, समाप्त करने को नहीं -मिश्रा

रेलवे बोर्ड की ढुलमुल कार्य-प्रणाली उसकी कमजोरी को दर्शाती है -अधिकारी

अवैधानिक, पक्षपाती और भेदभावपूर्ण लार्जेस स्कीम का अब कोई औचित्य नहीं

नई दिल्ली : रेलवे बोर्ड द्वारा 26 सितंबर 2018 को अपने पत्र के माध्यम से लार्जेसको समाप्त कर देने का निर्णय जारी किया गया था, ऑल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन और इसके महामंत्री की पुरजोर पहल पर उक्त पत्र को रेलवे बोर्ड ने वापस ले लिया. परंतु अभी भी लार्जेस स्कीम को स्थगित रखा गया है. अत: इस योजना के तहत नियुक्तियां नहीं हो पा रही हैं. अतएव ऑल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन (एआईआरएफ) के आह्वान पर इसके विरोध में पूरी भारतीय रेल के सभी प्रशासनिक एवं कार्य स्थलों पर रेलकर्मियों ने गुरूवार, 4 अक्टूबर को काला फीता बांधकर अपना विरोध प्रदर्शित किया.

एआईआरएफ के महामंत्री शिवगोपाल मिश्रा ने ‘रेल समाचार’ को भेजी गई एक विज्ञप्ति में कहा है कि लार्जेस के अंतर्गत नियुक्तियों के मामले में रेलकर्मियों में भारी असंतोष व्याप्त है. विज्ञप्ति में उन्होंने कहा है कि यह ऐसी योजना थी जिसके आधार पर रेलवे को सुरक्षित चलाने के लिए कर्मचारियों की जगह उनके आश्रितों को न्यूनतम वेतन में भर्ती करने का निर्णय लिया गया था. उन्होंने कहा कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इसे ‘रिजेक्ट’ करने की सलाह दी थी, न कि समाप्त करने की, परंतु रेलवे बोर्ड ने इसे होल्ड पर डालकर समाप्त करने की कोशिश की, जिससे कर्मचारियों में अत्यंत रोष है.

विज्ञप्ति में कॉम. मिश्रा ने कहा है कि सरकार अगर अभी भी लार्जेस के अंदर नियुक्तियों को तुरंत शुरू नहीं करती है, तो उसे इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे. इसके साथ ही उन्होंने कहा कि रेलकर्मियों की जायज मांगों का समाधान, जिनमें न्यूनतम वेतन, फिटमेंट फार्मूला और नई पेंशन योजना को समाप्त कर पुरानी पेंशन योजना को बहाल करना है, को वादा करने के बावजूद उनका समाधान करने में कोताही बरती जा रही है, जो कि रेलकर्मियों को कतई मंजूर नहीं है.

फोटो परिचय : ऑल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन की शीर्ष संस्था ‘हिंद मजदूर सभा’ बिहार प्रदेश के द्विवार्षिक सम्मलेन में 4 अक्टूबर को उपस्थित इसके राष्ट्रीय महामंत्री और एआईआरएफ एवं नार्दर्न रेलवे मजदूर यूनियन के शीर्ष नेता हरभजन सिंह सिद्धू एवं मंच पर विराजमान अन्य नेताओं सहित पूर्व मध्य रेलवे कर्मचारी यूनियन के सदस्यों ने भी काला फीता नहीं बांधा हुआ है. कई रेलकर्मियों ने एआईआरएफ के आह्वान पर तब सवाल उठाया जब उन्होंने उनके शीर्ष नेताओं को ही काला फीता बांधे नहीं देखा.

उन्होंने कहा कि यदि जल्दी ही रेलकर्मियों की समस्याओं का समाधान नहीं किया गया, तो अब रेल प्रशासन को ऑल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन के साथ आर-पार की लडाई लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए. इसकी सारी जिम्मेदारी भारत सरकार तथा रेल प्रशासन की होगी. कॉम. मिश्रा ने कहा कि यदि रेलकर्मियों की मांगें नहीं मानी गईं, तो एआईआरएफ की कार्यकारिणी में लिए गए प्रस्ताव के अनुसार जल्दी ही ‘वर्क टू रूल‘ का नोटिस भी प्रशासन को थमा दिया जाएगा.

लार्जेस स्कीम अवैधानिक, पक्षपाती और भेदभावपूर्ण -अधिकारी

तथापि,  रेलवे बोर्ड के कई वरिष्ठ अधिकारियों का मानना है कि लार्जेस स्कीम अवैधानिक, पक्षपाती और भेदभावपूर्ण है, इसमें देश के प्रत्येक नागरिक को रोजगार का समान अवसर नहीं दिया गया है. कई कैट और हाई कोर्टों के बाद ऐसा ही सुप्रीम कोर्ट का भी मानना था. इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने इस पर पुनर्विचार करने का निर्णय दिया है. ‘रेल समाचार’ के साथ चर्चा में उन्होंने अपना नाम उजागर न करने की शर्त पर यह भी कहा कि जो संगठन इसके लिए अत्यधिक जोर-अजमाइश कर रहे हैं, दरअसल उनका इसमें ‘वेस्टेड इंटरेस्ट’ है.

हालांकि इस ‘वेस्टेड इंटरेस्ट’ के क्या मायने हैं, ‘रेल समाचार’ द्वारा यह पूछने पर उन्होंने इसे फिलहाल स्पष्ट करना जरूरी नहीं समझा. उनका आगे कहना था कि किसी भी रेलकर्मी के ऑन-ड्यूटी निधन, आकस्मिक निधन, निर्धारित से ज्यादा अपंगता इत्यादि ऐसे अन्य कारणों से उनके आश्रितों को अनुकंपा आधार पर उनकी योग्यतानुसार रेलवे में नौकरी दिए जाने का प्रावधान जब पहले से लगातार जारी है, तब लार्जेस जैसी पक्षपाती और भेदभावपूर्ण स्कीम को लागू करने का कोई औचित्य नहीं है. उनका कहना है कि रेलवे बोर्ड को इस मामले में देश और समाज तथा पारिवारिक हितों को ध्यान में रखकर पूरी निष्पक्षता से निर्णय लेना चाहिए.

अधिकारियों का कहना था कि यह स्कीम वास्तव में रेलकर्मियों की पारिवारिक कलह का भी कारण बनी है. उन्होंने बताया कि युवा बेरोजगार बच्चों द्वारा कई रेलकर्मियों को इस स्कीम के तहत जबरन वीआरएस लेने के लिए मजबूर किए जाने के मामले सामने आए हैं. इससे न सिर्फ कई रेलकर्मियों का भविष्य अंधकारमय हुआ है, बल्कि वृद्धावस्था में वे निराश्रित और असुरक्षित हो गए हैं. उनका यह भी कहना था कि वास्तव में ऐसे मामले सामने आने के बाद पता चला है कि कुछ रेलकर्मियों के बच्चों को अपने लिए इस स्कीम के माध्यम से रेलवे की सरकारी नौकरी पाने का एक आसान रास्ता मिल गया है. दरअसल वही इसके लिए अधिक दबाव बना रहे हैं. इसके अलावा कई ऐसे मामले भी सामने आए हैं, जिनमें इस स्कीम के तहत कुछ ऐसे लोगों को भी नौकरी मिल गई, जिनका कोई सगा-संबंधी रेलवे की नौकरी में नहीं था. इस तरह यह स्कीम कदाचार का भी एक माध्यम बन गई थी.

अधिकारियों का कहना है कि उपरोक्त के अलावा भी कई ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण कारणों की वजह से ही रेलवे बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के परिप्रेक्ष्य में इस भेदभावपूर्ण स्कीम को समाप्त करने का पत्र जारी किया था, जिसे श्रमिक संगठनों के विरोध में दूसरे ही दिन वापस ले लिया गया. उनका कहना था कि रेलवे बोर्ड की यह कार्य-प्रणाली उसकी कमजोरी को दर्शाती है और श्रमिक संगठनों को रेलकर्मियों को बरगलाने तथा श्रमिक असंतोष को हवा देकर राजनीति करने का राशन-पानी उपलब्ध कराती है. जबकि शुरू से इस स्कीम के औचित्य पर सवाल उठा रहे और इसे भेदभावपूर्ण मानने वाले कुछ अन्य रेल अधिकारियों का कहना था कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में रेलवे बोर्ड द्वारा जो भी निर्णय लिया जाए, वह स्पष्ट और प्रभावी होना चाहिए.

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