बिना कारण बताए नौ महीने बाद डिस्चार्ज किया गया टेंडर

यदि जरूरत नहीं थी, तो क्यों किया गया था टेंडर? नुकसान का जिम्मेदार कौन?

फेल हुए एलएचबी कोचों के बजाय कन्वेंशनल कोच बताकर किया जा रहा गुमराह

आरएमपीयू मेंटेनेंस टेंडर्स में मुंबई मंडल द्वारा किया जा रहा है भारी मेनीपुलेशन

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सुरेश त्रिपाठी

मध्य रेलवे, मुंबई मंडल द्वारा एलएचबी कोचों में लगी विभिन्न मेक की एसी पैकेज यूनिट्स और डबल डेकर टाइप एसी कोचों की रूफ माउंटेड डिज़ाइन (आरएमपीयू) के लिए सालाना रख-रखाव ठेका (एएमसी) देने का एक टेंडर (नं. 09/2017) 18 जनवरी 2018 को जारी किया गया था. यह कांट्रेक्ट तीन साल के लिए था और इसकी कुल अनुमानित (विज्ञापित) लागत 9,57,96,159 रुपये थी. यह टेंडर 23 फरवरी 2018 को पूर्वान्ह 11 बजे खोला गया था और इसमें सिर्फ एक मात्र पार्टी – सिदवल रेफ्रिजरेशन इंडस्ट्रीज प्रा. लि., दिल्ली – ने ही टेंडर डाला था. तथापि एकमात्र पार्टी होने के बावजूद यह टेंडर फाइनल करने के बजाय तमाम हीलाहवाली करते हुए पूरे 9 महीने बाद यह टेंडर बिना कोई कारण बताए निरस्त (डिस्चार्ज) कर दिया गया है.

इस पर कई सवाल यह उठ रहे हैं कि यदि उपरोक्त कार्य कांट्रेक्ट पर करवाने की कोई जरूरत नहीं थी, तो यह टेंडर जारी ही क्यों किया गया था? और यदि ऐसा था, तो टेंडर को डिस्चार्ज करने के लिए 9 महीने का लंबा समय क्यों लगाया गया? इसके अलावा यदि उक्त टेंडर डिस्चार्ज किए जाने के लिए यह वाजिब कारण है, तो फिर यही कार्य वर्तमान में कार्यरत एक नॉन-ओईएम कांट्रेक्टर से लिमिटेड सिंगल कोटेशन पर क्यों करवाया जा रहा है? उल्लेखनीय है कि गत वर्ष भी इसी कार्य के लिए यही टेंडर किया गया था, उसे भी करीब आठ महीनों बाद इसी प्रकार डिस्चार्ज कर दिया गया था. इसके परिणामस्वरूप मुंबई मंडल, मध्य रेलवे की तमाम गाड़ियों के एलएचबी कोच फेल हुए हैं, और हो रहे हैं, परंतु इसका कोई सही व्यवस्थापन नहीं किया जा रहा है.

पिछले दिनों मनमाड-मुंबई इंटरसिटी पंचवटी एक्सप्रेस के कोचों के एसी फेल हो गए. इसके अलावा अन्य कई गाड़ियों के भी एलएचबी कोचों के एसी फेलियर हुए हैं. इसके साथ ही पॉवर कार में आग लगने के मामले भी हुए हैं. परंतु मुंबई मंडल द्वारा मुख्यालय को हर महीने भेजे जाने वाले पीसीडीओ में इनकी जानकारी एलएचबी के बजाय कन्वेंशनल कोचों के एसी फेल होने के रूप में दी गई. यानि इस तरह मुख्यालय को गुमराह किया गया. जबकि पॉवर कार में आग लगने के मामले पूरी तरह छिपाए गए. पिछले महीने जब पंचवटी एक्स. के कोचों के एसी फेल हुए थे, तब ‘रेल समाचार’ ने मुंबई मंडल से लेकर मध्य रेलवे मुख्यालय तक से 8-9 महीनों बाद भी तत्संबंधी टेंडर फाइनल न किए जाने और एसी फेल होने के कारणों की जानकारी के लिए पूछताछ की थी. इसके अलावा आठ महीने से टेंडर फाइनल न किए जाने के बारे में म. रे. विजिलेंस को भी इसकी जानकारी दी गई थी. ऐसा बताया जा रहा है कि इसी के बाद उक्त टेंडर बिना कोई कारण बताए आनन-फानन में रद्द कर दिया गया.

इस पूछताछ और जानकारी करने के दरम्यान ‘रेल समाचार’ ने ‘सिदवल’ के प्रतिनिधि सी. पी. तिवारी से भी यह जानने का प्रयास किया कि उनकी कंपनी एकमात्र या सिंगल बिडर होने के बावजूद क्या कारण है कि आठ महीने बाद भी न तो कंपनी को यह टेंडर दिया गया और न ही अब तक उसे डिस्चार्ज किया गया है? कहीं इसका कारण किसी प्रकार की ‘डिमांड’ तो नहीं है, जो कि उनकी कंपनी पूरी नहीं कर पा रही है? इस पर श्री तिवारी ने अनभिज्ञता जाहिर करते हुए स्पष्ट रूप से कहा कि वास्तव में उनकी कंपनी खुद ही उक्त टेंडर के लिए इच्छुक नहीं है. हालांकि श्री तिवारी ने जब संबंधित अधिकारियों की झूठी तारीफों के पुल बांधने शुरू किए, तो ‘रेल समाचार’ ने उनसे यह भी पूछा कि यदि उनकी कंपनी उक्त टेंडर लेने की इच्छुक नहीं है, तो फिर टेंडर भरा ही क्यों था, क्या अब उनकी कंपनी अपना कारोबार समेटना चाहती है? इस पर उनकी बोलती बंद हो गई थी.

बहरहाल, हमारे विश्वसनीय सूत्रों से पता चला है कि उक्त टेंडर सिंगल बिडर को आवंटित करने के लिए भारी रिश्वत की मांग की गई थी. सूत्रों का कहना है कि इसे देने से बिडर ने इंकार तो नहीं किया था, परंतु इस पर मोल-भाव (बारगेनिंग) चल रहा था, इसीलिए टेंडर फाइनल करने में इतना लंबा समय लग रहा था. इसके अलावा टेंडर इसलिए डिस्चार्ज किया गया, क्योंकि ‘रेल समाचार’ की पूछताछ के दरम्यान यह सारी मिलीभगत न सिर्फ उजागर हो गई थी, बल्कि पूरा मामला विजिलेंस सहित जीएम सेक्रेट्रियेट के भी संज्ञान में आ गया था. इस तमाम कवायद में म.रे. विद्युत् मुख्यालय के मुख्याधिकारी की भी मिलीभगत का खुलासा हुआ है, जिसे म.रे. मुख्यालय की मर्जी के विरुद्ध महा-ड्रामेबाज मेंबर ट्रैक्शन ने भुवनेश्वर से लाकर पदस्थ किया है. इसके अलावा यांत्रिक मुख्यालय के एक और मुख्याधिकारी की इस मामले में हिस्सेदारी बंटाने की कोशिशों पर भी विवाद हो रहा है, क्योंकि उक्त मेंटेनेंस कार्य ‘सुशासन बाबू’ के घालमेल के चलते अब यांत्रिक विभाग के अंतर्गत आ गया है.

सूत्रों का कहना है कि उपरोक्त गतिविधियों के बीच ही उक्त टेंडर यह कहकर डिस्चार्ज कर दिया गया कि अब इस कार्य को ठेके पर देने की कोई आवश्यकता नहीं है और अब यह कार्य विभागीय तौर पर किया जाएगा. तथापि यही कार्य वर्तमान में कार्यरत एक नॉन-ओईएम कांट्रेक्टर को लिमिटेड सिंगल कोटेशन पर दे दिया गया. जबकि निर्धारित नियमों के अनुसार इस कोटेशन प्रक्रिया में भी ओईएम पंजीयन प्राप्त फर्मों को न सिर्फ शामिल किया जाना आवश्यक है, बल्कि उन्हें वरीयता भी दिया जाना जरूरी है. जानकारों का कहना है कि नियमानुसार यह प्रक्रिया इसलिए नहीं अपनाई गई, क्योंकि संबंधित कांट्रेक्टर संबंधित अधिकारी के गांव-जवार का ही रहने वाला है, ऐसा बताया गया है. इसके अलावा यह भी आश्चर्यजनक है कि मुंबई मंडल के संबंधित चतुर अधिकारियों ने अपनी कमी और कामचोरी को छिपाने के लिए एलएचबी कोचों में मैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट होने की बात कहकर एमसीएफ/आईसीएफ को डीओ लेटर भी लिखवा दिया.

प्राप्त जानकारी के अनुसार उपरोक्त टेंडर वर्क पहले भी सिदवल द्वारा ही किया जा रहा था. गत वर्ष जब उसका निर्धारित समय पूरा हो गया था, तब उसने काम करने से मना कर दिया था. मगर उसे लगभग जबरन एक्सटेंशन दे दिया गया. अंततः जब कंपनी ने पुराने रेट पर काम करने से मना करके यह काम पूरी तरह से बंद कर दिया था, तब इसके लिए फरवरी में टेंडर किया गया था, जिसे बिना फाइनल किए लगभग 8-9 महीने बाद हाल ही में पुनः डिस्चार्ज कर दिया गया है. इस तरह कुल मिलाकर लगभग 16-17 महीने का समय बरबाद किया गया और अब यह काम ठेके पर कराने की कोई जरूरत नहीं है, कहकर भी यही काम वर्तमान कार्यरत नॉन-ओईएम कांट्रेक्टर को लिमिटेड सिंगल कोटेशन पर दे दिया गया है. जानकारों का कहना है कि यदि इस टेंडर की कोई जरूरत नहीं थी, तो पहले इसकी जरूरत बताकर डीआरएम का अप्रूवल किस आधार पर लिया गया था? अब 16-17 महीने बाद ऐसा क्या हो गया है कि इसकी जरूरत नहीं है, कहकर भी सिंगल कोटेशन पर यही काम करवाया जा रहा है? उनका कहना है कि इसका सीधा मतलब यही है कि मांगा गया पैसा नहीं मिला, इसलिए दोनों बार टेंडर डिस्चार्ज किया गया है.

जानकारों का यह भी कहना है कि लिमिटेड सिंगल कोटेशन पर लोकल कांट्रेक्टर से यह काम करवाया जा रहा है, यह न सिर्फ गलत है, बल्कि नियम के विरुद्ध भी है. उनका यह भी कहना है कि रेल प्रशासन को फिलहाल यह समझ नहीं आ रहा है, मगर जब सारे एलएचबी कोच बरबाद हो जाएंगे, और यात्री परेशान होकर उसके विरुद्ध मोर्चा खोल देंगे तथा रेलवे की छवि खराब होगी, तब उसे यह सारी कहानी समझ में आ जाएगी. ऐसा ही कुछ सिदवल कंपनी के प्रतिनिधि सी. पी. तिवारी का भी मानना था.

इसका मतलब यह है कि जो ठेकेदार संबंधित अधिकारियों को उनका मुंह मांगा पैसा देंगे, उनको ही टेंडर दिए जाएंगे, जो नहीं देगा, उसको टेंडर नहीं मिलेगा. जानकारों का कहना है कि पश्चिम रेलवे, मुंबई सेंट्रल मंडल का एक अधिकारी, जिसे सीबीआई ने भारी रिश्वत लेते हुए रंगेहाथ पकड़ा था, ऐसा ही कर रहा था. उन्होंने बताया कि उक्त अधिकारी तब तक टेंडर डिस्चार्ज करता रहता था, जब तक कि उसको उसकी मुंह मांगी राशि नहीं मिल जाती थी. उन्होंने बताया कि उक्त अधिकारी द्वारा टेंडर कंडीशन में ज्यादा मात्रा या ज्यादा वजन की सामग्री डाली जाती थी और इसकी जानकारी वह अपने चहेते कांट्रेक्टर को एडवांस में दे देता था, जिससे उसका अनुबंधित कांट्रेक्टर उसी के अनुरूप रेट डालता था. जब उसके चहेते कांट्रेक्टर को टेंडर मिल जाता था तथा उसको उसकी मुंह मांगी रकम प्राप्त हो जाती थी, तो संबंधित कांट्रेक्टर से एक आवेदन लेकर और उतनी मात्रा की जरूरत नहीं होने की जस्टिफिकेशन बनाकर ‘टाइपिंग मिस्टेक’ के नाम पर डीआरएम/एडीआरएम से अप्रूवल लेकर उसकी मात्रा घटा देता था. इस प्रकार बाकी कांट्रेक्टर ठगे रह जाते थे. उनका कहना है कि इसी प्रकार लगभग सभी टेंडर जानबूझकर ‘कॉम्प्लिकेटेड’ बनाए जाते हैं, जिससे बाद में उनमें मनचाहे तौर पर मैनीपुलेशन किया जा सके. यही प्रक्रिया पिछले काफी समय से मुंबई मंडल, मध्य रेलवे में भी अपनाई जा रही है.

इसके अलावा भी मुंबई मंडल के कई ऐसे मामले ‘रेल समाचार’ के संज्ञान में आए हैं, जिनमें कई कॉन्ट्रैक्टर्स की पचासों लाख की पेनाल्टी माफ करके उसे कुछ लाख कर दिया गया और बाकी राशि का आपस में बंटवारा कर लिया गया. इस संबंध में एक ऑडियो रिकॉर्डिंग भी ‘रेल समाचार’ को प्राप्त हुई है, जिसमें संबंधित एसएसई को यह कहते स्पष्ट सुना जा सकता है कि ‘साहब के कहने पर पचास लाख की पेनाल्टी माफ कर दी गई है.’ क्रमश:

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